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भारत राष्ट्रीय परिवार : एक समग्र राजदर्शन

भारत राष्ट्रीय परिवार एक नव-राजनीतिक दर्शन है। सार्वभौम वैश्विक नियमों पर आधारित भारत राष्ट्रीय परिवार की राजनीतिक विचारधारा प्राणिमात्र में अन्तर्निहित जीवनीशक्ति से अध्ययन से प्रेरित है। जिस प्रकार शरीर में छुपी हुई जीवनशक्ति शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए उत्तरदायी है उसी प्रकार भारत राष्ट्रीय परिवार की विचारधारा से हम राजनीति में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं।

वस्तुत: भारत राष्ट्रीय परिवार का सम्पूर्ण दर्शन राजनीति के क्षेत्र में एक नवल प्रयोग अथवा नवाचार है। 'अपरिग्रह' को एक सामाजिक अनुप्रयोग के रूप में विकसित करते हुए भारत राष्ट्रीय परिवार ने अपरिग्रह यज्ञ-क्रान्ति के माध्यम से देश की राज‍नीति में आमूलचूल परिवर्तन का बीड़ा उठाया है।

भारत राष्ट्रीय परिवार वह अनोखा और अद्भुत राजदर्शन है जो 'ऋत' पर आधारित है। 'ऋत' से तात्पर्य उन सार्वभौम वैश्विक नियमों से है जिन ब्रह्माण्ड की कार्यप्रणाली आलंबित है। अपरिग्रह-आधारित सामाजिक अनुप्रयोग तैयार करने में 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' सूत्र के आधार पर कतिपय सार्वभौम वैश्विक नियमों की पहचान की गयी है जिनका हम भारत राष्ट्रीय परिवार के मार्गदर्शी सिद्धान्त के रूप में आगे विवेचन करेंगे। राजनीति ही नहीं अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इन नियमों का प्रयोग निस्संदेह अचूक परिणाम देने वाला है।

'भारत राष्ट्रीय परिवार' का उद्देश्य समाज की एक विशुद्ध चेतन इकाई' जन' के रूप में संगठित होकर राष्ट्र की अनिवार्यताओं को पूरा करने हेतु व्यक्ति और राज्य के बीच सेतु तैयार करना है।

यदि एक पंक्ति में कहा जाए तो 'अपरिग्रह' के भाव पुष्पों से 'समाज-ब्रह्म' की उपासना ही भारत राष्ट्रीय परिवार की मूल भावना है।

भारत राष्ट्रीय परिवार के मार्गदर्शी सिद्धांत

समदर्शिता अर्थात सब तक पहुँच। किसी भी प्रणाली का सर्वोच्च आदर्श यह है कि वह अपनी समस्त एककों के साथ सतत संवाद में रह सके।

संपूरकता अर्थात सर्वोत्तम परिणाम के लिए परस्पर संपूरक तत्वों की अंतर्क्रिया सुनिश्चित करना।

समग्रता का तात्पर्य जीवनीशक्ति से है। भारत राष्ट्रीय परिवार के उपर्युक्त तीन प्रमुख मार्गदर्शी सिद्धांत हैं जिनका आश्रय नीतियों, नियमों, विनियमों के निर्माण के समय उत्पन्न किसी असमंजस की स्थिति में चिंतन को विस्तार दे सकता है।

भारत राष्ट्रीय परिवार के उपर्युक्त तीन प्रमुख मार्गदर्शी सिद्धांत हैं जिनका आश्रय नीतियों, नियमों, विनियमों के निर्माण के समय उत्पन्न किसी असमंजस की स्थिति में चिंतन को विस्तार दे सकता है।

भारत राष्ट्रीय परिवार के मार्गदर्शी सिद्धान्तों का वैचारिक आधार

यह सहजग्राह्य है कि मानवपिण्ड को हम प्रकृतिजन्य सार्वभौम नियमों द्वारा संचालित और अनुशासित के एक सम्पूर्ण मानक व्यवस्था के रूप में स्वीकार कर सकते है। मानव शरीर जब तक सार्वभौम वैश्विक नियमों के अनुकूल व्यवहारशील होता है, स्वस्थ रहता है। अन्यथा, वह शरीर प्रकृतिगत जड़ता जिसे दूसरे शब्दों में रुग्णता कह सकते हैं, से ग्रस्त हो जाता है। यह रुग्णता सार्वभौम वैश्विक नियमों से विचलन के समानुपाती होती है।

एक स्वस्थ मानव शरीर में जो तीन प्रमुख लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं, वे हैं- समदर्शिता, संपूरकता और समग्रता।

एक स्वस्थ शरीर अपने परिवेश के प्रति पूर्ण सजग होता है जो समदर्शिता का गुण है। जैवशास्त्रीय दृष्टिकोण से शरीर में सर्वत्र विद्यमान तंत्रिकागुच्छ जाल के माध्यम से मानव मस्तिष्क यह कार्य निष्पादित करता है।

एक स्वस्थ शरीर समय के प्रवाह के साथ जो दूसरी विशेषता अर्जित करता है और उसे सतत बनाए रखता है, वह है-- सममिति। उसकी सोचसमझ वस्तु और उसके प्रतिबिम्ब के बीच तालमेल को समझने के द्वारा विकसित होती है। यह प्रकृति द्वन्द्वात्मक है, यदि दिन है तो रात है, नर है तो नारी है, सुख है तो दुख है। विश्व और प्रतिविश्व के रूप में प्रतिबिम्बित यह जगत एक ही तत्व का विकार है।

जागतिक अवस्था में प्रत्येक वस्तु दो भाग में विभक्त अवश्य हो जाती है। किन्तु, 'परस्पर सम्पूरकता' उनमें 'स्मृति' के रूप में सदैव विद्यमान रहती है।

परस्पर सम्पूरक अवयवों में एक दूसरे के विकार को हरण करने की अद्भुत प्राकृतिक क्षमता होती है। हमारा शरीर इस अर्जित योग्यता का उपयोग शरीर के समस्त अंगों को परस्पर तालमेल और संतुलन के साथ संचालित करने में करता है।

मानव शरीर को निरन्तर स्वस्थ रखने के लिए जो गुण निरन्तर सजग एवं कार्यशील रहता है, वह है- समग्रता अथवा उदग्रता। सरल शब्दों में हम इसे अंदर से बाहर की ओर फेंकने की शक्ति के रूप में समझ सकते हैं। वस्तुत: 'चरै‍वेति-चरैवेति', 'नेति-नेति' के रूप में एवं 'अपरिग्रह' के सम्बन्ध में हमें उपलब्ध सभी शास्त्र-निर्देश जीवन के इसी अनिवार्य गुण की महिमा को रेखांकित करते हैं।

वस्तुत: अंदर से बाहर की ओर, गर्भ से प्राकार की ओर, अणु से विराट की ओर प्रस्फुटन जीवन का प्रसार है और इसके प्रतिकूल जो कुछ भी है वह जीवनावरोधी वर्तुल अथवा मृत्यु का क्षण-विराम है।

यहाँ हमारे समक्ष एक जिज्ञासा जन्म ले सकती है कि क्या इस प्रणोदन का कोई अनुपात-विशेष है?

उपर्युक्त प्रश्न के समाधान की ओर हमें जल पर तैरते हुए बर्फ के टुकड़े से पर्याप्त संकेत मिल सकता है। तैरते हुए बर्फ के टुकड़े पर जो उत्प्लावन बल लगता है उसके कारण उसका 1/10 भाग जल की सतह पर आकाश में दृष्टिगोचर होता है, शेष 9/10 भाग जल में निमग्न रहता है।

मन भी प्रकारान्तर से जल ही है इसलिए संसार की प्रत्येक मानसी सृष्टि 1/10 जागतिक होती है। पाश्चात्य मनोविज्ञान भी चेतन और अचेतन मन के बीच उपर्युक्त अनुपात ही निर्धारित करता है, किन्तु, उसके पीछे के आधार से वह संभवत: अनभिज्ञ है। वस्तुत: किसी भी जैविक इकाई में दशमांश का गणित उसकी जीवन्तता का जागता हुआ प्रमाण है।

अतएव दशमांश के अनुपात से विचलन हमारी जीवनीशक्ति को प्रतिकूलतया प्रभावित करता है। संसारार्णव में निर्द्वन्द्व तैरने के लिए हमें उपर्युक्त अनुपात को निरन्तर सजग रहकर बनाए रखने की सतत आवश्यकता है। यह हमारी सहज स्थिति अथवा संतुलन-बिन्दु है।

इस सहजावस्था में किसी भी जैविक इकाई में सतत कार्यरत जीवनीशक्ति जो उसके भीतर सात प्रमुख सूक्ष्म केन्द्रों में गुंफित रह अनवरत रूप से स्पन्दित होती रहती है और शरीर के समस्त अवयवों को परस्पर तालमेल के साथ कार्य निष्पादित करने हेतु सतत निर्देश प्रदान करती रहती है, अपने महत्तम आयाम में प्रकट होती है।

मनुष्य के सन्दर्भ में, उपर्युक्त केन्द्रों के सफल प्रकम्पन और निर्देश निर्गमन हेतु आवश्यक है कि सामाजार्थिक क्रिया-व्यवहार के दौरान क्षिप्त-प्रक्षिप्त समस्त विक्षोभों से अविचलित रह कर यथासम्भव लक्षित सहज-अनुपात बनाए रखने के लिए वह सर्वथा तत्पर हो।

प्रश्न उठता है कि सामाजार्थिक क्रिया-व्यवहार बाह्य विक्षोभों को कैसे जन्म देते हैं? उत्तर है- लाभांश का अन्यायपूर्ण संवितरण। सामाजार्थिक इकाइयों में लाभांश का अन्यायपूर्ण एवं पक्षपातपूर्ण संवितरण इसके लिए उत्तरदायी है।

सामाजार्थिक इकाइयॉं जब परस्पर संव्यवहार करते समय सार्वभौम नियमों की अवज्ञा करती हैं तो समाज में सामूहिक परिश्रम के प्रतिफल का परस्पर संवितरण उत्तरोत्तर अन्यायपूर्ण होता जाता है और सकल सामाजिक परिवेश दुख और अपराध के बोझ से आक्रान्त हो जाता है।

अतएव एक स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न होता है कि न्यायपूर्ण संवितरण की कसौटी क्या हो?

इसका समाधान-सूत्र उस त्रिगुणात्मिका प्रकृति में है जिसका प्रतिनिधित्व करने वाली इच्छा, ज्ञान और क्रियारूपी तीन वृत्तियाँ कर्म के प्रत्येक क्षेत्र में सतत संक्रियाशील हैं। अतएव किसी उत्पादन-प्रकल्प में परस्पर क्रियाशील इन तीनों वृत्तियों के आवेग का परस्पर अनुपात ही उनके मध्य लाभांश के वितरण का उचित अनुपात होगा।

किसी उद्यम-प्रकल्प के सफल संचालन में इच्छा, ज्ञान और क्रिया के अवदान का अनुपात ज्ञात करने हेतु हम एक समबाहु त्रिभुज की ज्यामितीय संरचना का सहारा लेते हैं।

एक समबाह त्रिभुज की आमने सामने की भुजाओं को यदि समान दूरी पर चिन्हित कर उसे तीन भागों में विभक्त कर दिया जाए तो इस प्रकार प्राप्त शीर्ष क्षेत्र, मध्य क्षेत्र एवं आधार क्षेत्र के क्षेत्रफलों का परस्पर अनुपात क्रमश: 1/9, 3/9 और 5/9 प्राप्त होगा। देखें चित्र

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यहॉं शीर्ष क्षेत्र इच्छा का, मध्य क्षेत्र ज्ञान का और आधार क्षेत्र क्रिया का प्रतिनिधित्व करता है। अतएव किसी प्रकल्प में यदि इच्छा का प्रतिनिधित्व करने वाले शीर्ष प्रबन्धन, ज्ञान का प्रतिनिधित्व करने वाले मध्य प्रबन्धन और क्रिया का प्रतिनिधित्व करने वाले कामगरों के बीच लाभांश के वितरण में क्रमश: 1/9, 3/9 और 5/9 का अनुपात बनाए रखा जाए तो उक्त लाभांश वितरण को 'न्यायपूर्ण संवितरण' की संज्ञा दी जाएगी।

न्यायपूर्ण संवितरण की समाज में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके अभाव में मानवीय समग्र चेतना व्यष्टि के स्तर पर प्रतिपल सचेष्ट रहकर बाह्य विक्षोभों से असम्पृक्त रहने का कितना भी प्रयास कर ले, समष्टि के स्तर पर परम-संतोष का आदर्श आकाश-कुसुम की भॉंति हाथ से फिसल ही जाता है।

एक समाज के रूप में हमारे हाथ में सार्वभौम एवं वैश्विक नियमों का अनुगमन ही वह एक मार्ग है जिससे हम व्यष्टि के स्तर पर पुरुषार्थ-चतुष्टय यथा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के अभीष्ट मार्ग को सरल और सर्वसुलभ बना सकते हैं। सामूहिक उद्यमिता ही निर्भय जीवन का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।

हमारा मानव शरीर सार्वभौम एवं वैश्विक नियमों की आदर्श प्रतिकृति है। एक स्वस्थ मानव शरीर में अपद्रव्यों को बाहर फेंकने की एवं पौष्टिक पदार्थों को ग्रहण करने की स्वाभाविक क्षमता होती है। इसके साथ ही उसमें परम्परा से प्राप्त तात्विक विवेचन, मनन एवं विश्लेषण की अतिरिक्त क्षमता उसे उदात्त राजनीतिक गुणों से विभूषित करती है।

अतएव, मानव शरीर की आन्तरिक क्रिया-प्रणाली को ध्यान में रखकर यदि हम समूह-संरचना करें तो इस प्रकार हम सम्यक् अर्थों में 'जन' की अवधारणा के अनुरूप राजनीतिक अवसंरचना निर्मित करने में सफल हो पाएंगे।

इस‍ प्रकार निर्मित राजनीतिक अवसंरचना जब गुणानुशीलन, स्वविवेक और सजगता से संयुक्त होकर न्यायपथ का वरण करेगी तो एक ऐसे विराट राष्ट्र-पुरुष का उदय होगा जिसकी छाया में सामूहिक उद्यमिता अभयता का पर्याय बन जाएगी।

भारत राष्ट्रीय परिवार की संकल्पना इसी दिशा में एक कदम है।

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